है यक़ीनन ये कोई राज़-ए-मशिय्यत वर्ना लोग करते ही नहीं शहर से हिजरत वर्ना उस की नफ़रत का दिया हम ने मोहब्बत से जवाब कम न थी ख़ून में कुछ अपने भी हिद्दत वर्ना तुझ को देखा तो यक़ीं हो गया ऐ मस्त-ए-ख़िराम देखता आँख से कौन अपनी क़यामत वर्ना ख़ून में सब के है क़ाबील के ख़ूँ का उंसुर नस्ल-ए-आदम के लिए वज्ह-ए-हलाकत वर्ना ऐ 'शरर' मैं ने ही सूरज से मिलाई आँखें किस ने की मेरे सिवा ऐसी जसारत वर्ना