हैवानियत का ज़हर दिलों में उतर गया बस्ती से अपनी कौन सा मौसम गुज़र गया ऊँचे मकान वाले जो थे साफ़ बच गए इल्ज़ाम-ए-क़त्ल सारा ग़रीबों के सर गया दीदार हो रहा था मुझे उन का ख़्वाब में आँखें खुलीं तो ख़ुशनुमा मंज़र बिखर गया हैरत-ज़दा हैं लोग मिरा अज़्म देख कर मैं पेच-ओ-ख़म की राह पे चल कर सँवर गया ज़ातें तमाम फ़िरक़ा-परस्ती में बट गईं 'वाक़िफ़' तलाश करता है इंसाँ किधर गया