हज़ार बार उसे नाकामियों ने समझाया मगर ये दिल तिरी उल्फ़त से बाज़ कब आया वही लगन है कि चलिए जहाँ कहीं तू हो वही चुभन कि मोहब्बत से हम ने क्या पाया खुलेगा राज़ कि आँचल की क्या हक़ीक़त है कभी जो सर से मोहब्बत के ये ढलक आया गुलों के घाव भी शबनम से धुल सके हैं कभी कि अश्क ने मिरे ज़ख़्मों को और महकाया वो क्या मक़ाम है दामन की आरज़ू में नदीम जहाँ पे दस्त-ए-तमन्ना भी जा के थर्राया यहाँ बहार न जान-ए-बहार है 'मसऊद' कहाँ से तुर्फ़ा ग़ज़ल आज फिर ये कह लाया