हज़ार ज़ख़्म हैं दिल पर जिगर पे खाए हुए मगर मिले जो किसी से तो मुस्कुराए हुए कुछ इस अदा से वो आए नज़र झुकाए हुए तमाम रह गए शिकवे ज़बाँ पे आए हुए उधर तो साग़र-ओ-पैमाना वाले रहते हैं उधर कहाँ चले वाइ'ज़ क़दम बढ़ाए हुए बढ़ो कुछ और कि तारीकी-ए-जफ़ा कम हो इसी तरह से चराग़-ए-वफ़ा जलाए हुए हमें सताने से बाज़ आओगे यक़ीं तो नहीं तुम्हारे कितने ही वादे हैं आज़माए हुए तुम्हारे तीर-ए-नज़र को किसी ने कुछ न कहा हमारी आह को हैं दास्ताँ बनाए हुए हमारा ज़िक्र और इस मय-कदे में ऐ 'आसी' यहाँ तो शैख़-ओ-बरहमन हैं डगमगाए हुए