हक़ बात पे मरता हूँ तो मरने नहीं देते ये अहल-ए-जहाँ कुछ भी तो करने नहीं देते उस पार की बातें तो बहुत करते हैं लेकिन कश्ती कोई इस पार उतरने नहीं देते हर जुर्म मिरे नाम किए जाते हैं लेकिन ख़ुद पर कोई इल्ज़ाम वो धरने नहीं देते है फ़िक्र उन्हें मर के भी मैं ज़िंदा रहूँगा ये सोच के ज़ालिम मुझे मरने नहीं देते इस दहर के मक़्तल में बपा ज़ुल्म है ऐसा मज़लूम को फ़रियाद भी करने नहीं देते मंज़िल है कड़ी ऐसी कड़ी भी तो नहीं है वो राह-नुमा हैं कि गुज़रने नहीं देते 'राजस' उन्हें दा'वा है बहुत चारागरी का रिसते हुए ज़ख़्मों को जो भरने नहीं देते