हक़ीक़त ज़ीस्त की समझा नहीं है वो अपने दश्त से गुज़रा नहीं है अँधेरे रक़्स करते हैं मुसलसल कि सूरज रात को आता नहीं है करेगा ख़ुद-कुशी ही एक दिन वो सुकूँ जिस ज़ेहन को मिलता नहीं है उठाए घूमती है ज़र्द पत्ते हवा से और कुछ चलता नहीं है न डूबो शम्अ में परवानो तुम, ये दहकती आग है दरिया नहीं है उमंगों की कई नदियाँ हैं इस में समुंदर है ये दिल सहरा नहीं है ये जो आतिश-फ़िशाँ है मुझ में 'सीमा' दहकता रहता है बुझता नहीं है