हक़ीक़त क्या बताऊँ ज़िंदगी की उसे लत पड़ गई है आदमी की ये घर में साएँ साएँ सुन रहे हो यही आवाज़ तो है ख़ामुशी की मिरे क़दमों में गिर कर वक़्त रोया सूई उल्टी घुमाई जब घड़ी की कभी बाहर जो निकले पाँव मेरे तो घुटने मोड़ कर चादर बड़ी की मुझे जब ढूँडने कोई न आया तो मैं ने ख़ुद ही अपनी मुख़बिरी की सुना है क़ैस ने सहरा से आ कर मिसालें दीं मिरी दीवानगी की