हक़ीक़तों से मगर मुन्हरिफ़ रहा न गया सो शहर-ए-ख़्वाब से अपना भी आब-ओ-दाना गया हरीफ़-ए-ज़ात अजब थे कि उम्र भर ख़ुद को बुरा समझते रहे पर बुरा कहा न गया जो मुंतशिर हूँ तो हैरत न कर कि दरिया में भँवर के बा'द किसी लहर में बहा न गया अजीब लम्स था अब के जुनूँ के हाथों में क़बा-ए-रंग में ख़ुश्बू से फिर रहा न गया हवा मिज़ाज तिरे दर-ब-दर रहे ता उम्र किसी भी दश्त किसी शहर में बसा न गया ज़मीं से उड़ के ज़मीं तक पहुँच गई आख़िर सरिश्त-ए-ख़ाक से अफ़्लाक में रहा न गया