हम अपना आप लुटाने कहाँ पे आ गए हैं ख़ुद अपनी क़द्रें गँवाने कहाँ पे आ गए हैं दिलों से दिल मिले रहते थे ग़ुर्बतों में मियाँ शिकम की आग बुझाने कहाँ पे आ गए हैं लिखा था पुरखों ने सदियों में जिन को मेहनत से वो सारे शजरे जलाने कहाँ पे आ गए हैं जो चाहते थे रहे अपनी ज़ात तक हर बात वो अपने ज़ख़्म दिखाने कहाँ पे आ गए हैं ज़मीं पे अपनी ही जल बुझ के ख़ाक हो जाते हम अपने दिल को जलाने कहाँ पे आ गए हैं ये वो जगह है जहाँ जिस्म तक नहीं छुपते हम अपने सर को छुपाने कहाँ पे आ गए हैं किसी भी रिश्ते की इज़्ज़त यहाँ नहीं बाक़ी मियाँ ये आज ज़माने कहाँ पे आ गए हैं ये सच है अहद-ए-तरक़्क़ी किया था ख़ुद से 'अदील' मगर ये अहद निभाने कहाँ पे आ गए हैं