हम अपनी कहानी भूल गए हम अपना फ़साना भूल गए ऐसा ये ज़माना रंग लाया हम हँसना-हँसाना भूल गए बुलबुल का चहकना याद रहा फूलों का महकना याद रहा अपनी ही हक़ीक़त याद नहीं अपना ही तराना भूल गए मय-ख़ाने की रातें याद आईं बुत-ख़ाने की बातें याद आईं पहुँचे जो हरम की चौखट पर सर अपना झुकाना भूल गए ये ज़ुल्म-ओ-सितम के मतवाले इंसाफ़ का दा'वा करते हैं दें किस को सज़ा है किस की ख़ता ये अहल-ए-ज़माना भूल गए आग़ाज़-ए-जफ़ा की तल्ख़ी से घबराना भी इक नादानी है उन पर भी कोई वक़्त आएगा वो अपना ज़माना भूल गए साक़ी है जुदा मयख़ाने से साग़र है जुदा पैमाने से हस्ती के तलातुम में फँस कर सब पीना-पिलाना भूल गए उल्फ़त की क़सम इस दुनिया में अब कोई किसी का भी न रहा बेगानों का शिकवा क्या कीजे अपने अपनाना भूल गए है शम्अ' ख़फ़ा परवाने से साग़र है ख़जिल पैमाने से उठता है धुआँ मयख़ाने से सब पीना-पिलाना भूल गए इक साज़-ए-शिकस्ता ले के 'नसीम' उस गुलशन में क्या जाएँ कि हम बुलबुल को रुलाना भूल गए फूलों को हँसाना भूल गए