हम अपनी सूरतों से मुमासिल नहीं रहे एक उम्र आइने के मुक़ाबिल नहीं रहे मजबूरियाँ कुछ और ही लाहक़ रहीं हमें दिल से तिरे ख़िलाफ़ तो ऐ दिल नहीं रहे अब वक़्त ने पढ़ाए तो पढ़ने पड़े तमाम अस्बाक़ जो निसाब में शामिल नहीं रहे बे-चेहरगी का दुख भी बहुत है मगर ये रंज हम तेरी इक निगाह के क़ाबिल नहीं रहे उम्र-ए-रवाँ के मोड़ पे कुछ ख़्वाब मेरे ख़्वाब खोए गए हैं ऐसे कि अब मिल नहीं रहे अपने लिए हमें कभी फ़ुर्सत न मिल सकी उस को गिला कि हम उसे हासिल नहीं रहे क्या रात थी कि शहर की सूरत बदल गई हम ए'तिबार-ए-सुब्ह के क़ाबिल नहीं रहे