हम दश्त से हर शाम यही सोच के घर आए शायद कि किसी शब तिरे आने की ख़बर आए मालूम किसे शहर-ए-तिलिस्मात का रस्ता कुछ दूर मिरे साथ तो महताब-ए-सफ़र आए इस फूल से चेहरे की तलब राहत-ए-जाँ है फेंके कोई पत्थर भी तो एहसाँ मिरे सर आए ता फिर न मुझे तीरा-नसीबी का गिला हो ये सुब्ह का सूरज मिरी आँखों में उतर आए अब आगे अलम और कोई हाथों से ले ले हम शब के मुसाफ़िर थे चले ता-ब-सहर आए