हम दोस्तों के लुत्फ़-ओ-करम देखते रहे होते रहे जो दिल पे सितम देखते रहे ख़ामोश क़हक़हों में भी ग़म देखते रहे दुनिया न देख पाई जो हम देखते रहे अल्लाह-रे जोश-ए-इश्क़ कि उठती जिधर नज़र तुम को ही बस ख़ुदा की क़सम देखते रहे नागाह पड़ गई जो कहीं उन पे इक नज़र ता-देर अपने आप को हम देखते रहे हम ने तो बढ़ के चूम लिया आस्तान-ए-यार हसरत से हम को दैर ओ हरम देखते रहे जो साथ मेरे चल न सके राह-ए-शौक़ में वो सिर्फ़ मेरे नक़्श-ए-क़दम देखते रहे बरसों के बाद उन से मिले भी तो इस तरह पहरों वो हम को और उन्हें हम देखते रहे हर शाम एक ख़्वाब-ए-सहर में गुज़ार दी हर सुब्ह एक शाम-ए-अलम देखते रहे चलते ही दौर-ए-जाम जो अहल-ए-निगाह थे किस किस की आस्तीन थी नम देखते रहे सब कुछ वही था फिर भी गुलिस्ताँ में आज हम क्या शय थी हो गई है जो कम देखते रहे बस्ती में लोग ऐसे भी हैं कुछ बसे हुए आया जिधर से तीर-ए-सितम देखते रहे आए थे अपने चाहने वालों को देखने कितना है किस मरीज़ में दम देखते रहे