हम ज़मीं का आतिशीं उभार देखते रहे सहमे सहमे से ही बस ग़ुबार देखते रहे शोहरतें, ये दौलतें, ये मसनदें, मिलीं प हम बे-नियाज़ ही रहे, हज़ार देखते रहे आख़िरश ज़माना उन को छोड़ आगे बढ़ गया हर क़दम जो इज़्ज़त-ओ-वक़ार देखते रहे उन को फिर अमाँ कहाँ नसीब होनी थी, कि जो हर मक़ाम से रह-ए-फ़रार देखते रहे एक एक कर के क़त्ल हो रही थी फिर भी हम अपनी ख़्वाहिशों की इक क़तार देखते रहे है मुहाफ़िज़-ए-चमन का मुजरिमाना तौर ये नुच गई कली कली प ख़ार देखते रहे सब सियाह था कहीं न सब सफ़ेद, फिर भी हम लैल देखते रहे, नहार देखते रहे बाहर अपने ख़ोल से न आ सके तमाम उम्र हम दरून-ए-ज़ात ख़लफ़शार देखते रहे हौसला न काविशें, अमल न रब्त-ए-आसमाँ हम कि हसरतों का इक मज़ार देखते रहे आफ़्ताब ओ कहकशाँ, ये चाँद, तारे दूर से रौशनी का बिल-यक़ीं मदार देखते रहे अब गिला है क्यूँ मदद का आसमाँ से, जब कि हम कायर ऐसे थे कि ख़ुद पे वार देखते रहे तेरे बिन हयात की सोच भी गुनाह थी हम क़रीब-ए-जाँ तिरा हिसार देखते रहे दूसरों के हक़ की वो लड़ाई लड़ सकेंगे क्या वो जो अपने आप को भी ख़्वार देखते रहे 'ख़ालिद' ऐसे भी तो हैं किनारे बैठ कर ही जो बहर में चढ़ाव और उतार देखते रहे