हम कि जो बैठे हुए हैं अपने सर पकड़े हुए आप ही ज़ंजीर हैं और आप ही जकड़े हुए शाम पीली राख में ख़ून-ए-शफ़क़ का इंजिमाद रात जैसे ख़्वाब-ए-यख़-बस्ता हों दिन अकड़े हुए रंग के पहरे हैं रुख़्सारों की आब-ओ-ताब पर और रंगों को हैं ज़ुल्फ़ों की लटें जकड़े हुए धूप ने नाख़ुन डुबोए हैं गुलों के ख़ून में ज़ख़्म-ख़ुर्दा ख़ुशबुएँ फिरती हैं सर पकड़े हुए रात काली रात पेड़ों को हिलाती आँधियाँ और हम बैठे तनाब-ए-ख़्वाब हैं पकड़े हुए