हम मुतमइन हैं उस की रज़ा के बग़ैर भी हर काम चल रहा है ख़ुदा के बग़ैर भी लिपटी हुई है जिस्म से ज़ंजीर-ए-मस्लहत बे-दस्त-ओ-पा हैं लोग सज़ा के बग़ैर भी इक कारोबार-ए-शौक़ ही ऐसा है जिस में अब चलता है काम मक्र-ओ-रिया के बग़ैर भी इक लम्हा अपने-आप को यकजा न कर सके हम मुंतशिर हैं सैल-ए-बला के बग़ैर भी इक चुप सी लग गई थी मुझे उस के रू-ब-रू मैं सर-निगूँ खड़ा था ख़ता के बग़ैर भी