हम न जाएँगे रहनुमा के क़रीब लूट लेगा हमें बुला के क़रीब आबदीदा है इशरत-ए-दुनिया किस क़दर ग़म हैं बे-नवा के क़रीब इक परिंदा लपक के पहुँचा था फिर भी प्यासा रहा घटा के क़रीब ज़र्फ़-ए-दिल आज़मा रही है शराब जाम रक्खे हैं पारसा के क़रीब चश्म-ए-पुर-नम वो आज उठ्ठे हैं कल जो बैठे थे मुस्कुरा के क़रीब उन से पूछा कि ज़िंदगी क्या है इक दिया रख दिया बुझा के क़रीब फ़ासले राज़ दरमियाँ हैं मगर आदमी फिर भी है ख़ुदा के क़रीब