हम ने सहरा को सजाया था गुलिस्ताँ की तरह तुम ने गुलशन को बनाया है बयाबाँ की तरह रात का ज़हर पिए ख़्वाब का आँचल ओढ़े कौन है साथ मिरे गर्दिश-ए-दौराँ की तरह ढूँढता फिरता हूँ अब तक भी हैं सहरा सहरा उसी लम्हे को जो था फ़स्ल-ए-बहाराँ की तरह मस्लहत-कोश ज़माने का भरोसा क्या है जो भी मिलता है यहाँ गर्दिश-ए-दौराँ की तरह आज वो लम्हे मुझे डसते हैं तन्हा पा कर कभी महबूब थे जो मुझ को दिल-ओ-जाँ की तरह जाने क्या बात है क्यूँ जश्न-ए-मसर्रत में नदीम याद आती है तिरी शाम-ए-ग़रीबाँ की तरह कब तलक शहर की गलियों में फिरोगे यारो आसमानों पे उड़ो तख़्त-ए-सुलैमाँ की तरह ये तो परवानों के दिल हैं जो पिघल जाते हैं कौन जलता है यहाँ शम-ए-शबिस्ताँ की तरह कौन ख़्वाबों के जज़ीरे से चला आया 'ख़याल' दिल में इक रौशनी है सुब्ह-ए-दरख़्शाँ की तरह