हम ने तन्हा-नशीनी ख़रीदी तो है रौनक़ ओ शोरिश-ए-अंजुमन बेच कर शम्अ' मेहराब-ए-दिल में जलाई तो है आरज़ूओं का अपनी कफ़न बेच कर मुतमइन हैं बहुत आज अर्बाब-ए-फ़न अपना सरमाया-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न बेच कर जैसे आईना रख दे कोई माह-वश हल्क़ा-ए-ज़ुल्फ़ का बाँकपन बेच कर खो गया दर्द हंगामा-ए-शहर में लुट रही है दुकान-ए-मता-ए-नज़र अब भी तौफ़ीक़ अगर है तो अहल-ए-जुनूँ बढ़ के ले लो उसे जान ओ तन बेच कर रुत बदलती रही रंग उड़ते रहे कम-नज़र बाग़बाँ कम-नज़र ही रहे इक ख़याबाँ को सैराब करते रहे आबरू-ए-बहार-ए-चमन बेच कर है 'फ़रीदी' अजब रंग-ए-बज़्म-ए-जहाँ मिट रहा है यहाँ फ़र्क़-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ नूर की भीक तारों से लेने लगा आफ़्ताब अपनी इक इक किरन बेच कर