हम समझते हैं आज़माने को उज़्र कुछ चाहिए सताने को संग-ए-दर से तिरे निकाली आग हम ने दुश्मन का घर जलाने को सुब्ह-ए-इशरत है वो न शाम-ए-विसाल हाए क्या हो गया ज़माने को बुल-हवस रोए मेरे गिर्ये पे अब मुँह कहाँ तेरे मुस्कुराने को बर्क़ का आसमान पर है दिमाग़ फूँक कर मेरे आशियाने को संग-ए-सौदा जुनूँ में लेते हैं अपना हम मक़बरा बनाने को शिकवा है ग़ैर की कुदूरत का सो मिरे ख़ाक में मिलाने को रोज़-ए-महशर भी होश गर आया जाएँगे हम शराब-ख़ाने को सुन के वस्फ़ उस पे मर गया हमदम ख़ूब आया था ग़म उठाने को कोई दिन हम जहाँ में बैठे हैं आसमाँ के सितम उठाने को चल के काबे में सज्दा कर 'मोमिन' छोड़ उस बुत के आस्ताने को नक़्श-ए-पा-ए-रक़ीब की मेहराब नहीं ज़ेबिंदा सर झुकाने को