हम से उल्फ़त जताई जाती है बे-क़रारी बढ़ाई जाती है देख कर उन के लब पे ख़ंदा-ए-नूर नींद सी ग़म को आई जाती है ग़म-ए-उल्फ़त के कार-ख़ाने में ज़िंदगी जगमगाई जाती है उन की चश्म-ए-करम पे नाज़ न कर यूँ भी हस्ती मिटाई जाती है बज़्म में देख रंग-ए-आमद-ए-दोस्त रौशनी थरथराई जाती है देख ऐ दिल वो उठ रही है नक़ाब अब नज़र आज़माई जाती है उन के जाते ही क्या हुआ दिल को शम्अ' सी झिलमिलाई जाती है तेरी हर एक बात में 'एहसान' इक न इक बात पाई जाती है