हम से वो जान-ए-सुख़न रब्त-ए-नवा चाहती है चाँद है और चराग़ों से ज़िया चाहती है उस को रहता है हमेशा मरी वहशत का ख़याल मेरे गुम-गश्ता ग़ज़ालों का पता चाहती है मैं ने इतना उसे चाहा है कि वो जान-ए-मुराद ख़ुद को ज़ंजीर-ए-मोहब्बत से रिहा चाहती है चाहती है कि कहीं मुझ को बहा कर ले जाए तुम से बढ़ कर तो मुझे मौज-ए-फ़ना चाहती है रूह को रूह से मिलने नहीं देता है बदन ख़ैर ये बीच की दीवार गिरा चाहती है हम परिंदों से ज़ियादा तो नहीं हैं आज़ाद घर को चलते हैं कि अब शाम हुआ चाहती है हम ने इन लफ़्ज़ों के पीछे ही छुपाया है तुझे और इन्हीं से तिरी तस्वीर बना चाहती है