हम शहर में इक शम्अ की ख़ातिर हुए बर्बाद लोगों ने किया चाँद के सहराओं को आबाद हर सम्त फ़लक-बोस पहाड़ों की क़तारें 'ख़ुसरव' है न 'शीरीं' है न तेशा है न फ़रहाद बरसों से यही ख़्वाब हैं नींदों की सजावट गुलशन है मगर गुल है न बुलबुल है न सय्याद हूँ ताइर-ए-बे-बाम चराग़-ए-सर-ए-सहरा उम्मीद-ए-करम है न मुझे शिकवा-ए-बेदाद जिस घर को बसाया था मिरी बे-ख़बरी ने आज उस को तिरी ख़ुद-निगरी कर गई बर्बाद कुछ ऐसा धुआँ है कि घुट्टी जाती हैं साँसें इस रात के ब'अद आओगे शायद न कभी याद हर ज़र्रा है मदफ़न मिरी हैरत-निगही का यारब! ये गली कूचे हमेशा रहें आबाद कल अपनी भी तस्वीर न पहचान सकेंगे इस दौर को बख़्शे गए वो 'मानी' वो 'बहज़ाद' सुनसान है ज़िंदाँ भी बिसान-ए-दिल-ए-शाएर ने शोर-ए-सलासिल है न हंगामा-ए-फ़रियाद ख़ुर्शीद-ए-क़यामत उतर आए रग-ए-जाँ में ऐ नग़्मागरो ऐसी कोई तर्ज़ हो ईजाद 'शोहरत' कि है अब वज्ह-ए-परेशानी-ए-अहबाब उठ जाएगा जिस रोज़ तू आएगा बहुत याद