हम सोचते हैं रात में तारों को देख कर शमएँ ज़मीन की हैं जो दाग़ आसमाँ के हैं जन्नत में ख़ाक बादा-परस्तों का दिल लगे नक़्शे नज़र में सोहबत पीर-ए-मुग़ाँ के हैं अपना मक़ाम शाख़-ए-बुरीदा है बाग़ में गुल हैं मगर सताए हुए बाग़बाँ के हैं इक सिलसिला हवस का है इंसाँ की ज़िंदगी इस एक मुश्त-ए-ख़ाक को ग़म दो-जहाँ के हैं