हम तशख़्ख़ुस खो रहे हैं ज़ात की तश्हीर में ख़ुद बिखरते जा रहे हैं कोशिश-ए-तामीर में ये भी सोचें काश इज़्ज़त क्या है और ज़िल्लत है क्या वो जो रुस्वा हो रहे हैं हसरत-ए-तौक़ीर में आज नख़्ल-ए-मस्लहत की छाँव में है महव-ए-ख़्वाब परवरिश जिस की हुई थी साया-ए-शमशीर में ऐ सुख़नवर तुम जो कहते हो वो क्यूँ करते नहीं क्यूँ हम-आहंगी नहीं किरदार और तहरीर में उस की सुब्हें दिल-कुशा हैं उस की शामें जाँ-फ़िज़ा खो गया जो शख़्स लुत्फ़-ए-नाला-ए-शब-गीर में हो अता जिस शख़्स को नूर-ए-बसीरत ऐ 'जलाल' देख लेता है मुसव्विर को भी वो तस्वीर में