हम तिरे शहर से यूँ जान-ए-वफ़ा लौट आए जैसे दीवार से टकरा के सदा लौट आए न कोई ख़्वाब न मंज़र न कोई पस-मंज़र कितना अच्छा हो जो बचपन की फ़ज़ा लौट आए आ गईं फिर वही मौसम की जबीं पर शिकनें मसअले फिर वही इस बार भी क्या लौट आए अपने आँगन में कोई पेड़ लगा तुलसी का शायद इस तरह से फिर ख़्वाब तिरा लौट आए जिस्म से सोते पसीने के उबल उठ्ठे हैं अब तो बेहतर है कि मस्मूम हवा लौट आए लौट हम आए 'मुबारक' यूँ दर-ए-जानाँ से जैसे आकाश से मुफ़लिस की दुआ लौट आए