हम तो बस इक उक़्दा थे हल होने तक ज़ंजीरों में बंद थे पागल होने तक इश्क़ अगर है दीन तो फिर हो जाएँगे हम भी मुर्तद इस के मुकम्मल होने तक मैं पानी था सूरज घूर रहा था मुझे क्या करता बे-बस था बादल होने तक अब तो ख़ैर सराब सी ख़ूब चमकती है आँख थी दरिया शहर के जंगल होने तक मुझ में भी थी तेज़ सी ख़ुशबू मअ'नी की महक रहा था मैं भी मोहमल होने तक अब वो मेरी आँख पे ईमाँ लाया है दश्त ही था ये दिल भी जल-थल होने तक झील कभी तालाब कभी दरिया था कभी मेरे क्या क्या रूप थे दलदल होने तक