हम तो मसहूर थे शिद्दत के सबब बोल उठे वो बुत-ए-संग भी मुमकिन है कि अब बोल उठे फूल अल्फ़ाज़ के फेंके हैं उसी की जानिब जाने वो जान-ए-अदा नाज़ से कब बोल उठे सामना उन का हुआ जब तो थी नज़रें नीची बे-क़रारी में मिरे दस्त-ए-तलब बोल उठे क़त्ल मेरा भी हुआ और शह-ए-वक़्त का भी इक पे ख़ामोश रहे एक पे सब बोल उठे उठ के सहराओं से मग़रिब को हिला दे आँधी यक-ज़बाँ हो के अगर अर्ज़-ए-अरब बोल उठे मुतमइन क्यूँ हैं जवाँ छाती पे पत्थर रख कर वक़्त पड़ने पे 'असर' कोह के लब बोल उठे