हम उम्र के साथ हैं सफ़र में बैठे हुए जा रहे हैं घर में हम लुट गए तेरी रहगुज़र में ये एक हुई है उम्र-भर में अब कौन रहा कि जिस को देखूँ इक तू था सो आ गया नज़र में हसरत को मिला है ख़ाना-ए-दिल तक़दीर खुली ग़रीब घर में आँखें न चुराओ दिल में रह कर चोरी न करो ख़ुदा के घर में अब वस्ल की रात हो चुकी ख़त्म लो छुप रहो दामन-ए-सहर में मैं आप ही उन से बोलता हूँ बैठा हूँ ज़बान-ए-नामा-बर में 'मुज़्तर' करो दिल ही दिल में शिकवे रह जाएगी बात घर की घर में