हम उन से मिल के उन्ही के असर में रहते हैं सफ़र से आ के भी जैसे सफ़र में रहते हैं वो क़हक़हे जिन्हें होंटों का दर नसीब नहीं वो अश्क बन के मिरी चश्म-ए-तर में रहते हैं हमारे इश्क़ के तोहफ़े को एहतियात से रख बहुत से लौटने वाले नगर में रहते हैं भुलाएगा कोई कैसे करम रफ़ीक़ों के ये तीर वो हैं जो हर-दम जिगर में रहते हैं न माँ का प्यार मयस्सर न अपने घर का सकूँ वो कैसे लोग हैं जा कर क़तर में रहते हैं हसीं मिसाल है बाहम निबाह की 'काविश' गुलाब जितने हैं काँटों के घर में रहते हैं