हम वही नादाँ हैं जो ख़्वाबों को धर कर ताक पर जागते ही रोज़ रख देता है ख़ुद को चाक पर दिल वो दरिया है जिसे मौसम भी करता है तबाह किस तरह इल्ज़ाम धर दें हम किसी तैराक पर हम तो उस के ज़ेहन की उर्यानियों पर मर मिटे दाद अगरचे दे रहे हैं जिस्म और पोशाक पर हम बख़ूबी जानते हैं बस हमारे जाते ही कैसे कैसे गुल खिलेंगे उस बदन की ख़ाक पर बात और व्यवहार ही से जान सकते हैं इसे इल्म की इमला लिखी जाती नहीं पोशाक पर