हमारे शहर में आने की सूरत चाहती हैं हवाएँ बारयाबी की इजाज़त चाहती हैं परिंदों से दर-ओ-दीवार ख़ाली हो गए हैं मिरी आँखें नगर को ख़ूबसूरत चाहती हैं लिखे भी जाओ लौह-ए-ख़ाक पर नक़्श-ए-उदासी कि आती साअतें हर्फ़-ए-शहादत चाहती हैं दिलों में क़ैद ना-आसूदा सारी इल्तिजाएँ हिसार-ए-हर्फ़ में आने की मोहलत चाहती हैं ज़बानों पर लिखी ज़ख़्म-ए-ज़बाँ की लज़्ज़तें अब दर-ओ-दीवार पर रंग-ए-जराहत चाहती हैं बहुत से ख़्वाब इन में धुँद बन कर रह गए हैं ये आँखें इज़्न-ए-गिर्या की सआदत चाहती हैं