हमारे दर्द का उस को जो पास हो जाए हमें भी जीने की थोड़ी सी आस हो जाए शहीद-ए-इश्क़ को ग़ुस्ल-ओ-कफ़न मिले न मिले मगर वो दफ़्न तिरे घर के पास हो जाए तुम्हारा फ़र्ज़ है तुम उस पे डाल दो पर्दा तुम्हारे सामने जो बे-लिबास हो जाए मिलेंगे तुम को इन्हीं पत्थरों में हीरे भी निगाह शर्त है जौहर-शनास हो जाए मैं जानता हूँ तिरा आज-कल जो मक़्सद है हमारे ज़ेहनों पे तारी हिरास हो जाए तुम्हारी बज़्म में माना गुज़ार लूँ इक दिन तमाम उम्र की लेकिन न प्यास हो जाए वहाँ से अपनी नज़र फेर कर गुज़र 'मुज़्तर' जहाँ दिखावे का तुझ को क़यास हो जाए