हमारे दस्त-ए-सख़ा कासा-ए-गदाई हैं जो रहनुमा थे वो मुहताज-ए-रहनुमाई हैं जो मिल भी जाए तो कैसे उठाएँगे तलवार ये बद-नसीब तो टूटी हुई कलाई हैं हरीफ़ जो भी हैं वो सब के सब मुक़ाबिल हैं जो वार करते हैं पीछे से अपने भाई हैं बस एक नाम की तस्बीह रोज़-ओ-शब पढ़ना मुझे ये लगता है ये धड़कनें पराई हैं ये आप ही की नवाज़िश है मेहरबानी है हमारी पलकों पे जो शमएँ जगमगाई हैं मैं मुंतज़िर था बहारों के लौटने का मगर मिरे दुखों की रुतें फिर से लौट आई हैं कहीं बिछड़ने की साअ'त क़रीब ही तो नहीं 'नियाज़' आँखें अचानक जो डबडबाई हैं