हमारे घर का अजीब-ओ-ग़रीब मंज़र है कहीं तो आग लगी है कहीं समुंदर है वो फ़ासले हैं कि मिटते नहीं किसी सूरत सफ़र का भूत शब-ओ-रोज़ मेरे सर पर है वो एक लफ़्ज़ जो उन्वान-ए-गुफ़्तुगू बनता वो एक लफ़्ज़ मिरी दस्तरस से बाहर है किसी की आहटें दिल को हिलाए देती हैं ज़रूर कोई मेरे जिस्म-ओ-जाँ के अंदर है