हमारे हाथ थे सूरज नए जहानों के सो अब ज़मीनों के हम हैं न आसमानों के हज़ार गिर्द लगा लें क़द-आवर आईने हसब-नसब भी तो होते हैं ख़ानदानों के हुरूफ़-बीं तो सभी हैं मगर किसे ये शुऊर किताब पढ़ती है चेहरे किताब-ख़्वानों के ये क्या ज़रूर कि नामों के हम-मिज़ाज हों लोग बहार और ख़िज़ाँ नाम हैं ज़मानों के वो चाहे आ के न बाहर किसी से बात करें ख़बर मकीनों की देते हैं दर मकानों के हमारी क़द्र को समझे ये अस्र-ए-ना-क़द्राँ हम अहल-ए-फ़न हैं खिलौने नहीं दुकानों के अब ऐसी शोरिश-ए-बाज़ार-ए-मदह में 'महशर' ख़मोश लहजे ग़नीमत हैं क़द्र-दानों के