हमारे ज़ख़्म का भरना बहुत ज़रूरी है अब इक़्तिदार में हिस्सा बहुत ज़रूरी है लहू हमारा बहुत बह चुका है धरती पर अब इंक़लाब का आना बहुत ज़रूरी है बदन पे ख़ूब है पर्दे का एहतिमाम मगर नज़र में शर्म का पर्दा बहुत ज़रूरी है बहुत ज़ियादा ख़ुशी भी मज़ा नहीं देती दिलों से दर्द का रिश्ता बहुत ज़रूरी है जो चाहते हो मोहब्बत में पुख़्तगी आए किसी से मिल के बिछड़ना बहुत ज़रूरी है मिरे बग़ैर तिरा ज़िक्र ना-मुकम्मल है दिए की लौ पे पतंगा बहुत ज़रूरी है जला रहा है घरों को जो बे-सबब 'दीदार' अब उस चराग़ का बुझना बहुत ज़रूरी है