हमारी आँख में ठहरा हुआ समुंदर था मगर वो क्या था जो सहरा-ए-दिल के अंदर था उसी को ज़ुल्फ़ में टाँके ये आरज़ू क्यूँ-कर वो फूल जो कि तिरी दस्तरस से बाहर था वो वक़्त आएगा जब ख़ुद तुम्ही ये सोचोगी मिला न होता अगर तुझ से मैं तो बेहतर था हर एक अंग लबालब भरा हो जैसे जाम तुम्हारा जिस्म था या मय-कदे का मंज़र था उसे भी जाते हुए तुम ने मुझ से छीन लिया तुम्हारा ग़म तो मिरी आरज़ू का ज़ेवर था बहुत क़रीब से देखा था उस को ऐ 'आज़ाद' वो आरज़ू का मिरी इक हसीन पैकर था