हमारी इस वफ़ा पर भी दग़ा की क़सम खाई थी ओ काफ़िर ख़ुदा की वो मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ हूँ ऐ सग-ए-यार अगर खाए सआ'दत है हुमा की लब-ए-शीरीं का जो बोसा लिया था मिरी उस की शकर-रंजी रहा की वफ़ा से मैं ने भी अब हाथ उठाया क़सम है मुझ को अपने बेवफ़ा की हुई गर सुल्ह भी तो भी रहे जंग मिला जब दिल तो आँख उस से लड़ा की फ़क़ीरों के क़दम लेते हैं सुल्ताँ ये है तासीर नक़्श-ए-बोरिया की तसव्वुर बंध गया जब उस मिज़ा का तो पहरों दिल पे बर्छी सी लगा की ख़ुदा यूँ जिस को चाहे दे सआ'दत वगर्ना सग में ख़सलत है हुमा की नहीं उठता है सर सज्दे से मेरा मगर है सज्दा-गाह उस ख़ाक-ए-पा की कहूँ जब मैं कि बे तेरे हूँ मरता तो कहता है वो बुत मर्ज़ी ख़ुदा की न आया मिन्नतों से यार जिस दम तो फिर क्या क्या अजल के इल्तिजा की