हमारी सम्त हैं सारे ढलाव पड़ा हर सैल का हम पर दबाव मिले हैं सादा-लौही की सज़ा में लुटेरे नाख़ुदा काग़ज़ की नाव वहाँ भी वहशतें तन्हाइयाँ हैं ज़रा सहरा से वापस घर तो जाओ न जाने कब ये आग आ जाए बाहर कि सीनों में दहकते हैं अलाव हवा का जिस तरफ़ रुख़ हो गया है उसी जानिब है शाख़ों का झुकाओ ज़मीं क्या आसमाँ भी मुंतज़िर है हिसार-ए-ज़ात से बाहर तो आओ कहेंगे लोग 'अहसन' तुम को पागल मोहब्बत है तो ये तोहमत उठाओ