इस तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का अजब मुझ पर असर था ख़ुद ही वो जला डाला जो यादों का शजर था सहरा में गुलाबों को उगाने की तमन्ना ये ख़्वाब अनोखा सा मिरे पेश-ए-नज़र था वो लौट के इक दिन जो पशेमाँ चला आया मेरे ही वो जज़्बों की सदाक़त का सहर था वो मेरी दुरीदों में भी मौजूद रहा है मैं कैसे भुला देती नहीं उस से मफ़र था बाक़ी रहा काँटों में लहू होने के बा-वस्फ़ ख़ुद्दारी का एहसास मिरा कैसा निडर था लाएक़ ही न था कोई मकीं दिल में जो रहता वर्ना ये कुशादा तो बहुत रहने को घर था जिन किर्चियों से मेरा बदन आज लहू है वो टूट के बिखरा मिरा ही शीश-नगर था दिल धड़का क़दम ठिठके पलट कर हुआ मालूम जिस ने ये सदा दी थी तिरा राहगुज़र था इक अंधा इरादा लिए जाता है किसी सम्त जब ठहरे तो देखा न सफ़र था न हज़र था इस लज़्ज़त-ए-तख़्लीक़ की काविश में फँसा जो निकला न कभी उस से ये ऐसा ही भँवर था मंज़िल न थी कोई न ही रस्ता नज़र आता ये सब उसी तफ़रीक़-ओ-तअ'स्सुब का समर था