हमेशा किसी इम्तिहाँ में रहा रहा भी तो क्या इस जहाँ में रहा न मैं दूर तक साथ उस के गया न वो देर तक हमरहाँ में रहा वो दरिया पे मुझ को बुलाता रहा मगर मैं सफ़-ए-तिश्नगाँ में रहा मैं बुझने लगा तो बहुत देर तक उजाला चराग़-ए-ज़ियाँ में रहा क़फ़स याद आया परिंदे को फिर बहुत रोज़ तक आशियाँ में रहा रही देर तक मौत से गुफ़्तुगू मैं जब हल्क़ा-ए-रफ़्तगाँ में रहा न गुल कोई दिल के शजर पर खिला न कोई समर शाख़-ए-जाँ में रहा ये ख़ाना हमेशा से वीरान है कहाँ कोई दिल के मकाँ में रहा