हंगामा-ए-हस्ती से गुज़र क्यूँ नहीं जाते रस्ते में खड़े हो गए घर क्यूँ नहीं जाते मय-ख़ाने में शिकवा है बहुत तीरा-शबी का मय-ख़ाने में बा-दीदा-ए-तर क्यूँ नहीं जाते अब जुब्बा-ओ-दस्तार की वक़अत नहीं बाक़ी रिंदों में ब-अंदाज़-ए-दिगर क्यूँ नहीं जाते जिस शहर में गुमराही अज़ीज़-ए-दिल-ओ-जाँ हो उस शहर-ए-मलामत में खिज़र क्यूँ नहीं जाते तोशा नहीं कोई नसीम-ए-सहरी का बे-राहिला ओ ज़ाद-ए-सफ़र क्यूँ नहीं जाते शायद कि शनासा हो कोई बे-हुनरी का क्यूँ डरते हो बाज़ार-ए-हुनर क्यूँ नहीं जाते हर लहज़ा है जो सर के लिए इक नई ठोकर उस ज़िल्लत-ए-हर-रोज़ से मर क्यूँ नहीं जाते हम जिस के लिए ज़िंदा हैं बा-हाल-ए-परेशाँ अब वो भी ये कहता है कि मर क्यूँ नहीं जाते क्यूँ गोशा-ए-ख़लवत से निकलते नहीं 'असलम' बैठे हैं जिधर लोग उधर क्यूँ नहीं जाते