हर अक्स में जिस का मुझे जल्वा नज़र आया वो आइना-ख़ाने में अकेला नज़र आया जब ध्यान गया अपनी तरफ़ ख़ुद पे नज़र की सहरा भी हमें ख़ाक का ज़र्रा नज़र आया था महव-ए-सफ़र अपनी ही तकमील की जानिब जो नक़्श भी देखा वो अधूरा नज़र आया इक रोज़ अचानक उसे देखा था सफ़र में फिर दूर तलक दश्त में दरिया नज़र आया अब शहर में मालूम करूँ किस से ये 'ज़ुल्फ़ी' वो मुझ को दिखाई न दिया या नज़र आया