हर बार नया ले के जो फ़ित्ना नहीं आया इस उम्र में ऐसा कोई लम्हा नहीं आया हूँ घर में कि अहबाब में मातूब रहे हम कुछ हम से न आया तो दिखावा नहीं आया आलूदा कभी गर्द-ए-तलब से न हुए हम होंटों पे कभी हर्फ़-ए-तमन्ना नहीं आया ये भी है कि मौज़ूँ न थी दुनिया की रविश भी कुछ हम से भी जीने का सलीक़ा नहीं आया छोड़ा तो न था हम ने सवालों का कोई हल थी जिस की तवक़्क़ो वो नतीजा नहीं आया नीलाम न कर दी हो कहीं प्यास की ग़ैरत इस बार कोई कूफ़े से प्यासा नहीं आया इक शख़्स पहेली की तरह साथ था मेरे मैं शहर से निकला तो अकेला नहीं आया