हर बे-ख़ता है आज ख़ता-कार देखना सच्चाइयों पे झूट की यलग़ार देखना तक़दीर बन न जाए शब-ए-तार देखना बुझने को है चराग़ सर-ए-दार देखना मक़्तूल की जबीं पे है क़ातिल लिखा हुआ क्या फ़ैसला हो कल सर-ए-दरबार देखना होगा बहुत शदीद तमाज़त का इंतिक़ाम साए से मिल के रोएगी दीवार देखना इन पत्थरों के साए में रुकना फ़ुज़ूल है बे-बर्ग-ओ-बे-समर हैं ये कोहसार देखना इस शहर-ए-आरज़ू को नज़र किस की खा गई मक़्तल बने हैं कूचा-ओ-बाज़ार देखना कुछ दिन अगर ये मौसम-ए-वहशत-असर रहा हर आदमी को बे-दर-ओ-दीवार देखना देता हूँ कैसे जान सर-ए-जादा-ए-वफ़ा मुझ को न देखना मिरा पिंदार देखना ख़ून-ए-जिगर से लिखता हूँ 'साग़र' मैं हर्फ़-ए-हक़ वक़्त आए तो क़लम को भी तलवार देखना