हर चंद अमर्दों में है इक राह का मज़ा ग़ैर-अज़-निसा वले न मिला चाह का मज़ा ख़तरे से उस के कर नहीं सकता मैं आह भी लेता हूँ जी ही जी में सदा आह का मज़ा अपनी तो उम्र रोज़-ए-सियह में गुज़र गई देखा कभी न हम ने शब-ए-माह का मज़ा बिल्लाह कह के उस ने क़सम खाई थी कहीं वल्लाह भूलता नहीं बिल्लाह का मज़ा बोसे के जो सवाल पे उस ने कहा था वाह अब तक फिरे है दिल में वही वाह का मज़ा लज़्ज़त को उस के समझें हैं क्या साहिब-ए-वर'अ कोई पूछे अहल-ए-फ़िस्क़ से तो बाह का मज़ा क्या वो भी दिन थे ख़ूब कि लूटें थे 'मुसहफ़ी' हम भी नज़ारा-ए-गह-ओ-बे-गाह का मज़ा