हर चंद रहगुज़र थी दुश्वार क़ाफ़िए की सुन कर न रह सके हम ललकार क़ाफ़िए की दिन का सुकून ग़ारत रातों की नींद ग़ाएब सर पर लटक रही है तलवार क़ाफ़िए की हम इस को बाँधते क्या जकड़ा है इस ने हम को अब देखते हैं सूरत नाचार क़ाफ़िए की इस आस पर कि शायद हो जाए तंग हम पर करते रहे ख़ुशामद अग़्यार क़ाफ़िए की ताज़ा हवा चली और इक लहर दिल में उट्ठी रोके न रुक सकी फिर यलग़ार क़ाफ़िए की पाया सुराग़-ए-मज़मूँ गाहे रदीफ़ में भी लाज़िम न थी समाजत हर बार क़ाफ़िए की दश्त-ए-ख़याल में फिर क्या क्या खुले मनाज़िर कुछ देर को हटी थी दीवार क़ाफ़िए की जब शेर का सफ़ीना बहर-ए-ग़ज़ल में डोला उस वक़्त काम आई पतवार क़ाफ़िए की मग़रिब की हो कहानी या मशरिक़ी रिवायत ऊँची रही हमेशा दस्तार क़ाफ़िए की कुछ शेर काम के भी इस में निकाले हम ने वो कहते थे ज़मीं है बे-कार क़ाफ़िए की फिर और कोई नग़्मा भाए न उस को 'बासिर' जो एक बार सुन ले झंकार क़ाफ़िए की