हर एक आँख को कुछ टूटे ख़्वाब दे के गया वो ज़िंदगी को ये कैसा अज़ाब दे के गया न दे सका मुझे वुसअत समुंदरों की मगर समुंदरों का मुझे इज़्तिराब दे के गया वो किस लिए मिरा दुश्मन था जाने कौन था वो जो आँख आँख मुसलसल सराब दे के गया ख़ला के नाम अता कर के छाँव की मीरास मुझे वो जलता हुआ आफ़्ताब दे के गया वो पेड़ ऊँची चटानों पे अब भी तन्हा हैं उन्ही को सारी मता-ए-सहाब दे के गया हर एक लफ़्ज़ में रख कर सराब मअनी का हर एक हाथ में वो इक किताब दे के गया मैं कुल हूँ और तू जुज़ में भी कुल है ऐ 'मंज़ूर' बिछड़ते वक़्त मुझे ये ख़िताब दे के गया