हर एक आन वो हम से जुदा सा कुछ तो है हमारी ज़ात के अंदर ख़ुदा सा कुछ तो है वो क्या है कुछ भी नहीं इक ज़रा सा कुछ तो है कभी दुआ तो कभी बद-दुआ' सा कुछ तो है लहू है बर्फ़ है रक़्स-ए-शरर है क्या है ये ये जिस्म-ओ-जाँ में पिघलता हुआ सा कुछ तो है समझ सका न कोई अब तलक कि वो क्या है वो आईना न सही आईना सा कुछ तो है तमाम रंग वो मौसम उड़ा गया लेकिन कहीं तो शाख़ पे अब तक हरा सा कुछ तो है